जो जीता रहा था खातिर तेरी,
क्युं अब उसे जीना बिना तेरे,
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

जीसे इश्क में दिल दुबाया तेरे,
क्युं अब उसे कहि और दुबाना.
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

चाह की बातोंमैं वो फ़साने तेरे
शगुफ़्ता शगुफ़्ता वो बहाने तेरे.
बस रहा इक दिल-ए-तन्हा मेरा,
जो बातो का निशाना हुआ तेरी.

जो जीता रहा था खातिर तेरी,
क्युं अब उसे जीना बिना तेरे,
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

मज़ालिम तेरी अदा ए आफ़रीन,
रिश्ते रहे हर सुहाने सुहाने तेरा.
दिल-ए-फ़क़ीर की झोली भर दो,
हैं जब इश्क का ख़ज़ाना-ए-तेरा.

जो जीता रहा था खातिर तेरी,
क्युं अब उसे जीना बिना तेरे,
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

कतरा-ए-लहुं रंग-ए-हिना बनकर,
लगाये कुछ इश्क-ए-निशान तेरा.
बस दिल-ए-ज़ख़्म-ए-नज़्ज़ारा मैं,
चूमता रहा हिना सजे हाथ तेरा.

जो जीता रहा था खातिर तेरी,
क्युं अब उसे जीना बिना तेरे,
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

फ़क़ीरों की भीड मैं घड़ी-दो-घड़ी,
मेरा लम्हा पिघला यादों से तेरी.
तेरे ख़ातिर कभी इल्ज़ाम उठाऐ,
तो क्युं देखे कातिल निगाहें तेरी.

जो जीता रहा था खातिर तेरी,
क्युं अब उसे जीना बिना तेरे,
ओ मज़ालिम…, ओ मज़ालिम…

तेरी ख़ुश्बू-ए-हिना मेरी साँसों मैं,
चैन मिला दर्द को बाहों में तेरी,
दिव्येश स्वप्न-ए-दीदार दिन-रात,
महकता आने कि आहाट से तेरी.

 – दिव्येश जे. संघाणी